Wednesday, December 13, 2017

अभी ठहरो

अभी ठहरो
अभी कुछ दिन लगेंगे
वस्ल को ख़्वाहिश बनाने में
तुम्हें अपना समझने के लिए
दिल को मनाने में
अभी कुछ दिन लगेंगे

अभी हम अपनी अपनी ख़्वाहिशों को
दिल से मिलने दें
उन्हें महसूस करने दें
वफ़ा क्या और तक़ाज़ा ए मुहब्बत की हदें क्या हैं
हदों की सरहदें क्या हैं
फिर इनके पार जाने का सबब क्या है
अभी ठहरो
अभी कुछ दिन लगेंगे

ध्यान ओ बेध्यानी में
तुम्हारी भीगती बातों की दरिया की रवानी में
कहानी ही कहानी में
अगर बेज़ा वो मंज़िल, कोई ख़्वाहिश
दिलों की कोख से पैदा हुई तो कौन देखेगा
हमारे नाम की सच्चाई को
और ख़्वाहिशों के बेनसब महताब चेहरों को
अभी ठहरो
अभी कुछ दिन लगेंगे

रिश्ता ए बेनाम को हमनाम करने में
कहानी को किसी आगाज़ से अंजाम करने में
कहीं इज़हार करने में
हमें इक़रार करने में
अभी ठहरो
अभी कुछ दिन लगेंगे

Tuesday, December 5, 2017

मेरा सफ़र - अली सरदार जाफ़री

फिर एक दिन ऐसा आएगा
आँखों के दिये बुझ जाएँगे
हाथों के कंवल कुम्हलायेंगे
और बर्ग ए ज़बाँ से नुत्क़ ओ सदा
की हर तितली उड़ जाएगी
एक काले समन्दर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हँसती हुई
सारी शक्लें खो जाएँगी
खूं की गर्दिश दिल की धड़कन
सब रागनियाँ सो जाएँगी
और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर
हँसती हुई हीरे की ये कनी
ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं
इसकी सुबहें इसकी शामें
बेजाने हुए बेसमझे हुए
इक मुश्त ए ग़ुबार ए इंसाँ पर
शबनम की तरह रो जाएँगी
हर चीज़ भुला दी जाएगी
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जाएगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन से बोलूँगा
चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊंगा
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती पत्ती कली कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रँग ए हिना आहंग ए ग़ज़ल
अंदाज़ ए सुख़न बन जाऊँगा
रुख़सार ए उरुस ए नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा
जाड़ों की हवाएँ दामन में
जब फ़स्ल ए ख़िजाँ को लाएँगी
रहरौ कर जवां कदमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
हँसने की सदाएँ आएँगी
धरती की सुनहरी सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जाएँगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है सरदार यहाँ
हर माशूका सुल्ताना है

मैं एक गुरेज़ां लम्हा हूँ
अय्याम के अफ़सूंख़ाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़ ए सफ़र जो रहता है
माज़ी की सुराही के दिल से
मुस्तक़बिल के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ

Thursday, November 30, 2017

दोराहे - कफ़ील आज़र


कब तलक ख़्वाबों से धोका खाओगी
कब तलक स्कूल के बच्चों से दिल बहलाओगी
कब तलक मुन्ना से शादी के करोगी तज़्किरे
ख़्वाहिशों की आग में जलती रहोगी कब तलक
छुट्टियों में कब तलक हर साल दिल्ली जाओगी
कब तलक शादी के हर पैग़ाम को ठुकराओगी
चाय में पड़ता रहेगा और कितने दिन नमक
बंद कमरे में पढ़ोगी और कितने दिन ख़ुतूत
ये उदासी कब तलक
कब तलक नज़्में लिखोगी
रोओगी यूँ रात की ख़ामोशियों में कब तलक
बाइबल में कब तलक ढूँढोगी ज़ख़्मों का इलाज
मुस्कुराहट में छुपाओगी कहाँ तक अपने ग़म
कब तलक पूछोगी टेलीफ़ोन पर मेरा मिज़ाज
फ़ैसला कर लो कि किस रस्ते पे चलना है तुम्हें
मेरी बाँहों में सिमटना है हमेशा के लिए
या हमेशा दर्द के शोलों में जलना है तुम्हें
कब तलक ख़्वाबों से धोके खाओगी

Sunday, November 19, 2017

नज़्म - साक़ी फ़ारूक़ी

ऐ दिल पहले भी तन्हा थे ऐ दिल हम तन्हा आज भी हैं
और उन ज़ख़्मों और दाग़ों से अब अपनी बातें होती हैं
जो ज़ख़्म कि सुर्ख़ गुलाब हुए जो दाग़ कि बदर ए मुनीर हुए
इस तरह से कब तक जीना है मैं हार गया इस जीने से

कोई अब्र उड़े किसी क़ुल्ज़ुम से रस बरसे मेरे वीराने पर
कोई जागता हो कोई कुढ़ता हो मेरे देर से वापस आने पर
कोई साँस भरे मेरे पहलू में कोई हाथ धरे मेरे शाने पर
और दबे दबे लहजे में कहे तुमने अब तक बड़े दर्द सहे
तुम तन्हा तन्हा जलते रहे तुम तन्हा तन्हा चलते रहे
सुनो तन्हा चलना खेल नहीं चलो आओ मेरे हमराह चलो
चलो नए सफ़र पर चलते हैं चलो मुझे बना के गवाह चलो

Monday, November 13, 2017

नज़्म - अमजद इस्लाम अमजद


मुहब्बत की तबियत में ये कैसा बचपना क़ुदरत ने रक्खा है
कि ये जितनी पुरानी जितनी मजबूत हो जाए
इसे ताईद ए ताज़ा की ज़रूरत फिर भी रहती है
यकीं की आख़िरी हद तक दिलों में लहलहाती है
निगाहों से टपकती हो, लहू में जगमगाती हो
हज़ारों तरह के दिलकश हसीं हाले बनाती हो
इसे इज़हार के लफ़्ज़ों की हाज़त फिर भी रहती है

मुहब्बत माँगती है यूँ गवाही अपने होने की
कि जैसे तिफ़्ल ए सादा शाम को इक बीज बोयें
और शब में बारहा उट्ठे
ज़मीं को खोद कर देखे, कि पौधा कहाँ तक है
मुहब्बत की तबियत में अजब तक़रार की खू है
कि ये इक़रार के लफ़्ज़ों को सुनने से नहीं थकती
बिछड़ने की घड़ी हो या कोई मिलने की साअत हो
इसे बस एक ही धुन है
कहो मुझसे मुहब्बत है, कहो मुझसे मुहब्बत है

तुम्हें मुझसे मुहब्बत है
समन्दर से कहीं गहरी, सितारों से सिवा रोशन
पहाड़ों की तरह क़ायम, हवाओं की तरह दायम
ज़मीं से आसमां तक जिस क़दर अच्छे मनाज़िर हैं
मुहब्बत के कमाए हैं वफ़ा के इस्तआरे हैं
हमारे वास्ते ये चाँदनी रातें सँवरती हैं
सुनहरा दिन निकलता है
मुहब्बत जिस तरफ़ जाए ज़माना साथ चलता है

कुछ ऐसी बेसुकूनी है वफ़ा की सरज़मींनों में
कि जो अहल ए मुहब्बत को सदा बेचैन रखती है
कि जैसे फूल में ख़ुशबू, कि जैसे हाथ में पारा
कि जैसे शाम का तारा
मुहब्बत करने वालों की सहर रातों में रहती है
गुमाँ के शाखचों में आशियाँ बनता है उल्फ़त का
ये आईन ए वस्ल में भी हिज्र के ख़दशों में रहती है

मुहब्बत के मुसाफ़िर ज़िन्दगी जब काट चुकते हैं
थकन की किरचियाँ चुनते वफ़ा की अज़रकें पहने
समय की रहगुज़र की आख़िरी सरहद पे रुकते हैं
तो कोई डूबती साँसों की डोरी थाम कर
धीरे से कहता है
ये सच है ना
हमारी ज़िंदगी इक दूसरे के नाम लिक्खी थी
धुँधलका से जो आँखों के क़रीब ओ दूर फैला है
इसी का नाम चाहत है
तुम्हें मुझसे मुहब्बत थी
तुम्हें मुझसे मुहब्बत है

मुहब्बत की तबियत में ये कैसा बचपना क़ुदरत ने रक्खा है

Sunday, October 29, 2017

नज़्म - अमजद इस्लाम अमजद

अगर कभी मेरी याद आए
तो चाँद रातों की नर्म दिलगीर रौशनी में
किसी सितारे को देख लेना
अगर वो नख़्ल ए फ़लक से उड़ कर
तुम्हारे क़दमों में आ गिरे तो ये जान लेना
वो इस्तिआरा था मेरे दिल का
अगर न आए
मगर ये मुमकिन ही किस तरह है
कि तुम किसी पर निगाह डालो
तो उस की दीवार ए जाँ न टूटे
वो अपनी हस्ती न भूल जाए

अगर कभी मेरी याद आए
गुरेज़ करती हवा की लहरों पे हाथ रखना
मैं ख़ुशबुओं में तुम्हें मिलूँगा
मुझे गुलाबों की पत्तियों में तलाश करना
मैं ओसक़तरों के आईनों में तुम्हें मिलूँगा
अगर सितारों में ओसक़तरों में ख़ुशबुओं में न पाओ मुझ को
तो अपने क़दमों में देख लेना
मैं गर्द होती मसाफ़तों में तुम्हें मिलूँगा

कहीं पे रौशन चराग़ देखो तो जान लेना
कि हर पतंगे के साथ मैं भी बिखर चुका हूँ
तुम अपने हाथों से उन पतंगों की ख़ाक दरिया में डाल देना
मैं ख़ाक बन कर समुंदरों में सफ़र करूँगा
किसी न देखे हुए जज़ीरे पे रुक के तुम को सदाएँ दूँगा
समुंदरों के सफ़र पे निकलो
तो उस जज़ीरे पे भी उतरना

Wednesday, October 18, 2017

ग़मगीन याद - मजाज़ लखनवी

मेरे पहलू ब पहलू जब वो चलती थी गुलिस्ताँ में
फ़राज़ ए आसमाँ पर कहकशाँ हसरत से तकती थी
मोहब्बत जब चमक उठती थी उस की चश्म ए ख़ंदाँ में
ख़मिस्तान ए फ़लक से नूर की सहबा छलकती थी

मेरे बाज़ू पे जब वो ज़ुल्फ़ ए शबगूँ खोल देती थी
ज़माना निकहत ए ख़ुल्द ए बरीं में डूब जाता था
मेरे शाने पे जब सर रख के ठंडी साँस लेती थी
मेरी दुनिया में सोज़-ओ-साज़ का तूफ़ान आता था

वो मेरा शेर जब मेरी ही लय में गुनगुनाती थी
मनाज़िर झूमते थे बाम ओ दर को वज्द आता था
मेरी आँखों में आँखें डाल कर जब मुस्कुराती थी
मेरे ज़ुल्मतकदे का ज़र्रा ज़र्रा जगमगाता था

उमड़ आते थे जब अश्क ए मोहब्बत उस की पलकों तक
टपकती थी दर ओ दीवार से शोख़ी तबस्सुम की
जब उस के होंट आ जाते थे अज़ ख़ुद मेरे होंटों तक
झपक जाती थीं आँखें आसमाँ पर माह ओ अंजुम की

वो जब हंगाम ए रुख़्सत देखती थी मुझको मुड़ मुड़ कर
तो ख़ुद फ़ितरत के दिल में महशर ए जज़्बात होता था
वो महव ए ख़्वाब जब होती थी अपने नर्म बिस्तर पर
तो उसके सर पे मरियम का मुक़द्दस हाथ होता था

ख़बर क्या थी कि वो इक रोज़ मुझ को भूल जाएगी
और उस की याद मुझ को ख़ून के आँसू रुलाएगी

Monday, October 16, 2017

उसकी बातें उदास कर देंगी

अपनी तन्हाईयों से पूछा है
शब ए हिज्रां से बात कर ली है
मेरे अंदर की सहमी ख़ामोशी
मेरे बाहर का हँसता चेहरा भी
रात के सनसनाते लम्हें भी
दिन का डसता हुआ उजाला भी
ज़ब्त का टूटता ये बंधन भी
सब्र का छूटता ये दामन भी
उसकी यादें भी कुछ इशारों में
मुझको मजबूर कर रहे हैं सब
आओ सब उसके पास चलते हैं
उससे कहते हैं कुछ दवा कर दो
अपनी फ़ितरत को छोड़ कर इक पल
कोई वादा तो तुम वफ़ा कर दो
इनकी बातों से कुछ नहीं होगा
आख़िरी फ़ैसला तो दिल का है
दिल ये कहता है उससे मिलने से
अपनी तन्हाईयाँ ही अच्छी हैं
अब अकेले में लग गया है दिल
उससे मिलने हमें नहीं जाना
उसकी बातें उदास कर देंगी

Friday, October 13, 2017

किसी का क्या बिगड़ जाता - नज़्म

किसी का क्या बिगड़ जाता
अगर हम एक हो जाते
हमेशा की तरह सूरज तुलू मशरिक़ से ही होता
हमेशा की तरह रातों में तारे जगमगाते और
बहारों में गुल ओ बुलबुल महकते, चहचहाते हाँ
किसी का क्या बिगड़ जाता
किसी का क्या बिगड़ जाता

न मैं फिरता यक ओ तन्हा
न तुम गुमसुम रहा करतीं
न जीवन में कमी रहती
न आंखों में नमी रहती
न मौसम रूठते हमसे
न रोज़ ओ शब गराँ होते
गुज़रते पल यूँ हैरत से हमें देखा नहीं करते
अगर हम एक हो जाते

अगर हम एक हो जाते
तो रूहों में बसी है जो
अज़ल की प्यास न रहती
ख़लिश सी ज़िंदगी में फिर
पस ए एहसास न रहती
कोई हसरत नहीं रहती
कोई भी आस न रहती
उदासी यास न रहती

किसी का क्या बिगड़ जाता
अगर हम एक हो जाते

आबला - अमजद इस्लाम अमजद

उदासी के उफ़ुक़ पर जब तुम्हारी याद के जुगनू चमकते हैं
तो मेरी रूह पर रक्खा हुआ ये हिज्र का पत्थर
चमकती बर्फ़ की सूरत पिघलता है
अगरचे यूँ पिघलने से ये पत्थर संगरेज़ा तो नहीं बनता
मगर इक हौसला सा दिल को होता है
कि जैसे सर ब सर तारीक शब में भी
अगर इक ज़र्दरू सहमा हुआ तारा निकल आए
तो क़ातिल रात का बेइस्म जादू टूट जाता है
मुसाफ़िर के सफ़र का रास्ता तो कम नहीं होता
मगर तारे की चिलमन से
कोई भूला हुआ मंज़र अचानक जगमगाता है
सुलगते पाँव में इक आबला सा फूट जाता है

Sunday, October 1, 2017

मुद्दत के बाद - हिमायत अली शायर

मुद्दत के बाद तुम से मिला हूँ तो ये खुला
ये वक़्त और फ़ासला धोखा नज़र का था
चेहरे पे उम्र भर की मसाफ़त रक़म सही
दिल के लिए तमाम सफ़र लम्हा भर का था

कैसी अजीब साअत ए दीदार है कि हम
फिर यूँ मिले कि जैसे कभी दूर ही न थे
आँखों में कमसिनी के वो सब ख़्वाब जाग उठे
जिनमें निगाह ओ दिल कभी मजबूर ही न थे

मासूम किस क़दर थीं वो बेनाम चाहतें
बचपन से हमकनार था अहद ए शबाब भी
यूँ आतिश ए बदन में थी शबनम घुली हुई
महताब से ज़ियादा न था आफ़्ताब भी

फिर वो हवा चली कि सभी कुछ बिखर गया
वो महफ़िलें वो दोस्त वो गुलरंग क़हक़हे
अब रक़्स ए गर्दबाद की सूरत है ज़िंदगी
ये वक़्त का अज़ाब कहाँ तक कोई सहे

अब तुम मिलीं तो कितने ही ग़म हैं तुम्हारे साथ
पत्थर की तरह तुम ने गुज़ारी है ज़िंदगी
कितना लहू जलाया तो ये फूल मुस्कुराए
किस किस जतन से तुम ने सँवारी है ज़िंदगी

मैंने भी एक जोहद ए मुसलसल में काट दी
वो उम्र थी जो फूल से अरमाँ लिए हुए
अब वो जुनूँ रहा है न वो मौसम ए बहार
बैठा हूँ अपना चाक ए गिरेबाँ सिये हुए

अब अपने अपने ख़ूँ की अमानत है और हम
और इन अमानतों की हिफ़ाज़त के ख़्वाब हैं
आँखों में कोई प्यास हो दिल में कोई तड़प
फैले हुए उफ़ुक़ से उफ़ुक़ तक सराब हैं

किस को ख़बर थी लम्हा इक ऐसा भी आएगा
माज़ी तमाम फिर सिमट आएगा हाल में
महसूस हो रहा है कि गुज़रा नहीं है वक़्त
इक लम्हा बट गया था फ़क़त माह ओ साल में

तुम भी वही हो मैं भी वही वक़्त भी वही
हाँ इक बुझी बुझी सी चमक चश्म ए नम में है
ये लम्हा जिस के सेहर में खोए हुए हैं हम
कितनी मसर्रतों का सुरूर इस के ग़म में है

Friday, September 29, 2017

नज़्म - अली सरदार जाफ़री

मेरे दरवाज़े से अब चाँद को रुख़्सत कर दो
साथ आया है तुम्हारे जो तुम्हारे घर से
अपने माथे से हटा दो ये चमकता हुआ ताज
फेंक दो जिस्म से किरनों का सुनहरी ज़ेवर
तुम ही तन्हा मेरे ग़मख़ाने में आ सकती हो
एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रक्खा है
मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद
दिल ए ख़ूँगश्ता का हँसता हुआ ख़ुशरंग गुलाब

Friday, September 15, 2017

नज़्म - अहमद फ़राज़

ये तेरी आँखों की बेज़ारी ये लहजे की थकन
कितने अंदेशों की हामिल हैं ये दिल की धड़कनें
पेशतर इसके कि हम फिर से मुख़ालिफ़ सम्त को
बे ख़ुदाहाफ़िज़ कहे चल दें झुका कर गर्दनें
आओ उस दुख को पुकारें जिस की शिद्दत ने हमें
इस क़दर इक दूसरे के ग़म से वाबस्ता किया
वो जो तन्हाई का दुख था तल्ख़ महरूमी का दुख
जिस ने हम को दर्द के रिश्ते में पैवस्ता किया
वो जो इस ग़म से ज़ियादा जाँगुसिल क़ातिल रहा
वो जो इक सैल ए बलाअंगेज़ था अपने लिए
जिस के पल पल में थे सदियों के समुंदर मौजज़न
चीख़ती यादें लिए उजड़े हुए सपने लिए
मैं भी नाकाम ए वफ़ा था तो भी महरूम ए मुराद
हम ये समझे थे कि दर्द ए मुश्तरक रास आ गया
तेरी खोई मुस्कुराहट क़हक़हों में ढल गई
मेरा गुमगश्ता सुकूँ फिर से मिरे पास आ गया
तपती दोपहरों में आसूदा हुए बाज़ू मेरे
तेरी ज़ुल्फ़ें इस तरह बिखरीं घटाएँ हो गईं
तेरा बर्फ़ीला बदन बेसाख़्ता लौ दे उठा
मेरी साँसें शाम की भीगी हवाएँ हो गईं
ज़िंदगी की साअतें रौशन थीं शम्ओं की तरह
जिस तरह से शाम गुज़रे जुगनुओं के शहर में
जिस तरह महताब की वादी में दो साए रवाँ
जिस तरह घुंघरू छनक उट्ठें नशे की लहर में
आओ ये सोचें भी क़ातिल हैं तो बेहतर है यही
फिर से हम अपने पुराने ज़हर को अमृत कहें
तू अगर चाहे तो हम इक दूसरे को छोड़ कर
अपने अपने बेवफ़ाओं के लिए रोते रहें

Saturday, September 9, 2017

तुम नहीं आए थे जब - अली सरदार जाफ़री

तुम नहीं आए थे जब तब भी तो मौजूद थे तुम
आँख में नूर की और दिल में लहू की सूरत
दर्द की लौ की तरह प्यार की ख़ुश्बू की तरह
बेवफ़ा वादों की दिलदारी का अंदाज़ लिए

तुम नहीं आए थे जब तब भी तो तुम आए थे
रात के सीने में महताब के ख़ंजर की तरह
सुब्ह के हाथ में ख़ुर्शीद के साग़र की तरह
शाख़ ए ख़ूँरंग ए तमन्ना में गुल ए तर की तरह

तुम नहीं आओगे जब तब भी तो तुम आओगे
याद की तरह धड़कते हुए दिल की सूरत
ग़म के पैमाना ए सरशार को छलकाते हुए
बर्ग हा ए लब ओ रुख़्सार को महकाते हुए
दिल के बुझते हुए अँगारे को दहकाते हुए
ज़ुल्फ़ दर ज़ुल्फ़ बिखर जाएगा फिर रात का रंग
शब ए तन्हाई में भी लुत्फ़ ए मुलाक़ात का रंग
रोज़ लाएगी सबा कू ए सबाहत से पयाम
रोज़ गाएगी सहर तहनियत ए जश्न ए फ़िराक़

आओ आने की करें बातें कि तुम आए हो
अब तुम आए हो तो मैं कौन सी शय नज़्र करुँ
कि मेरे पास बजुज़ मेहर ओ वफ़ा कुछ भी नहीं
एक ख़ूँगश्ता तमन्ना के सिवा कुछ भी नहीं

Thursday, September 7, 2017

ओ देस से आने वाले बता - अख़्तर शीरानी

ओ देस से आने वाले बता
किस हाल में हैं यारान ए वतन
आवारा ए ग़ुर्बत को भी सुना किस रंग में है कनआन ए वतन
वो बाग़ ए वतन फ़िरदौस ए वतन वो सर्व ए वतन रेहान ए वतन
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वहाँ के बाग़ों में मस्ताना हवाएँ आती हैं
क्या अब भी वहाँ के पर्बत पर घनघोर घटाएँ छाती हैं
क्या अब भी वहाँ की बरखाएँ वैसे ही दिलों को भाती हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वतन में वैसे ही सरमस्त नज़ारे होते हैं
क्या अब भी सुहानी रातों को वो चाँद सितारे होते हैं
हम खेल जो खेला करते थे क्या अब वही सारे होते हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी शफ़क़ के सायों में दिन रात के दामन मिलते हैं
क्या अब भी चमन में वैसे ही ख़ुशरंग शगूफ़े खिलते हैं
बरसाती हवा की लहरों से भीगे हुए पौदे हिलते हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
शादाब ओ शगुफ़्ता फूलों से मामूर हैं गुलज़ार अब कि नहीं
बाज़ार में मालन लाती है फूलों के गुँधे हार अब कि नहीं
और शौक़ से टूटे पड़ते हैं नौउम्र ख़रीदार अब कि नहीं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या शाम पड़े गलियों में वही दिलचस्प अँधेरा होता है
और सड़कों की धुँदली शम्ओं पर सायों का बसेरा होता है
बाग़ों की घनेरी शाख़ों में जिस तरह सवेरा होता है
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वहाँ वैसी ही जवाँ और मदभरी रातें होती हैं
क्या रात भर अब भी गीतों की और प्यार की बातें होती हैं
वो हुस्न के जादू चलते हैं वो इश्क़ की घातें होती हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
मीरानियों के आग़ोश में है आबाद वो बाज़ार अब कि नहीं
तलवारें बग़ल में दाबे हुए फिरते हैं तरहदार अब कि नहीं
और बहलियों में से झाँकते हैं तुर्कान ए सियहकार अब कि नहीं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी महकते मंदिर से नाक़ूस की आवाज़ आती है
क्या अब भी मुक़द्दस मस्जिद पर मस्ताना अज़ाँ थर्राती है
और शाम के रंगीं सायों पर अज़मत की झलक छा जाती है
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाला बता
क्या अब भी वहाँ के पनघट पर पनहारियाँ पानी भरती हैं
अंगड़ाई का नक़्शा बन बन कर सब माथे पे गागर धरती हैं
और अपने घरों को जाते हुए हँसती हुई चुहलें करती हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
बरसात के मौसम अब भी वहाँ वैसे ही सुहाने होते हैं
क्या अब भी वहाँ के बाग़ों में झूले और गाने होते हैं
और दूर कहीं कुछ देखते ही नौउम्र दीवाने होते हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी पहाड़ी चोटियों पर बरसात के बादल छाते हैं
क्या अब भी हवा ए साहिल के वो रस भरे झोंके आते हैं
और सब से ऊँची टीकरी पर लोग अब भी तराने गाते हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी पहाड़ी घाटियों में घनघोर घटाएँ गूँजती हैं
साहिल के घनेरे पेड़ों में बरखा की हवाएँ गूँजती हैं
झींगुर के तराने जागते हैं मोरों की सदाएँ गूँजती हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वहाँ मेलों में वही बरसात का जौबन होता है
फैले हुए बड़ की शाख़ों में झूलों का नशेमन होता है
उमडे हुए बादल होते हैं छाया हुआ सावन होता है
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या शहर के गिर्द अब भी है रवाँ दरिया ए हसीं लहराए हुए
जूँ गोद में अपने मन को लिए नागिन हो कोई थर्राए हुए
या नूर की हँसली हूर की गर्दन में हो अयाँ बल खाए हुए
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी वहाँ बरसात के दिन बाग़ों में बहारें आती हैं
मासूम ओ हसीं दोशीज़ाएँ बरखा के तराने गाती हैं
और तीतरियों की तरह से रंगीं झूलों पर लहराती हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी उफ़क़ के सीने पर शादाब घटाएँ झूमती हैं
दरिया के किनारे बाग़ों में मस्ताना हवाएँ झूमती हैं
और उन के नशीले झोंकों से ख़ामोश फ़ज़ाएँ झूमती हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या शाम को अब भी जाते हैं अहबाब कनार ए दरिया पर
वो पेड़ घनेरे अब भी हैं शादाब कनार ए दरिया पर
और प्यार से आ कर झाँकता है महताब कनार ए दरिया पर
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या आम के ऊँचे पेड़ों पर अब भी वो पपीहे बोलते हैं
शाख़ों के हरीरी पर्दों में नग़्मों के ख़ज़ाने घोलते हैं
सावन के रसीले गीतों से तालाब में अमरस घोलते हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या पहली सी है मासूम अभी वो मदरसे की शादाब फ़ज़ा
कुछ भूले हुए दिन गुज़रे हैं जिस में वो मिसाल ए ख़्वाब फ़ज़ा
वो खेल वो हमसिन वो मैदाँ वो ख़्वाबगह ए महताब फ़ज़ा
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी किसी के सीने में बाक़ी है हमारी चाह बता
क्या याद हमें भी करता है अब यारों में कोई आह बता
ओ देस से आने वाले बता लिल्लाह बता लिल्लाह बता
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या हम को वतन के बाग़ों की मस्ताना फ़ज़ाएँ भूल गईं
बरखा की बहारें भूल गईं सावन की घटाएँ भूल गईं
दरिया के किनारे भूल गए जंगल की हवाएँ भूल गईं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या गाँव में अब भी वैसी ही मस्ती भरी रातें आती हैं
देहात की कमसिन माहवशें तालाब की जानिब जाती हैं
और चाँद की सादा रौशनी में रंगीन तराने गाती हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी गजरदम चरवाहे रेवड़ को चुराने जाते हैं
और शाम के धुँदले सायों के हमराह घरों को आते हैं
और अपनी रसीली बांसुरियों में इश्क़ के नग़्मे गाते हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या गाँव पे अब भी सावन में बरखा की बहारें छाती हैं
मासूम घरों से भोर भये चक्की की सदाएँ आती हैं
और याद में अपने मैके की बिछड़ी हुई सखियाँ गाती हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
दरिया का वो ख़्वाबआलूदा सा घाट और उस की फ़ज़ाएँ कैसी हैं
वो गाँव वो मंज़र वो तालाब और उस की हवाएँ कैसी हैं
वो खेत वो जंगल वो चिड़ियाँ और उन की सदाएँ कैसी हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी पुराने खंडरों पर तारीख़ की इबरत तारी है
अन्नपूर्णा के उजड़े मंदिर पर मायूसी ओ हसरत तारी है
सुनसान घरों पर छावनी के वीरानी ओ रिक़्क़त तारी है
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
आख़िर में ये हसरत है कि बता वो ग़ारत ए ईमाँ कैसी है
बचपन में जो आफ़त ढाती थी वो आफ़त ए दौराँ कैसी है
हम दोनों थे जिस के परवाने वो शम ए शबिस्ताँ कैसी है
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
मरजाना था जिस का नाम बता वो ग़ुंचादहन किस हाल में है
जिस पर थे फ़िदा तिफ़्लान ए वतन वो जान ए वतन किस हाल में है
वो सर्व ए चमन वो रश्क ए समन वो सीमबदन किस हाल में है
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी रुख़ ए गुलरंग पे वो जन्नत के नज़ारे रौशन हैं
क्या अब भी रसीली आँखों में सावन के सितारे रौशन हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
क्या अब भी शहाबी आरिज़ पर गेसू ए सियह बिल खाते हैं
या बहर ए शफ़क़ की मौजों पर दो नाग पड़े लहराते हैं
और जिन की झलक से सावन की रातों के सपने आते हैं
ओ देस से आने वाले बता

ओ देस से आने वाले बता
अब नाम ए ख़ुदा होगी वो जवाँ मैके में है या ससुराल गई
दोशीज़ा है या आफ़त में उसे कमबख़्त जवानी डाल गई
घर पर ही रही या घर से गई ख़ुशहाल रही ख़ुशहाल गई
ओ देस से आने वाले बता