Sunday, October 1, 2017

मुद्दत के बाद - हिमायत अली शायर

मुद्दत के बाद तुम से मिला हूँ तो ये खुला
ये वक़्त और फ़ासला धोखा नज़र का था
चेहरे पे उम्र भर की मसाफ़त रक़म सही
दिल के लिए तमाम सफ़र लम्हा भर का था

कैसी अजीब साअत ए दीदार है कि हम
फिर यूँ मिले कि जैसे कभी दूर ही न थे
आँखों में कमसिनी के वो सब ख़्वाब जाग उठे
जिनमें निगाह ओ दिल कभी मजबूर ही न थे

मासूम किस क़दर थीं वो बेनाम चाहतें
बचपन से हमकनार था अहद ए शबाब भी
यूँ आतिश ए बदन में थी शबनम घुली हुई
महताब से ज़ियादा न था आफ़्ताब भी

फिर वो हवा चली कि सभी कुछ बिखर गया
वो महफ़िलें वो दोस्त वो गुलरंग क़हक़हे
अब रक़्स ए गर्दबाद की सूरत है ज़िंदगी
ये वक़्त का अज़ाब कहाँ तक कोई सहे

अब तुम मिलीं तो कितने ही ग़म हैं तुम्हारे साथ
पत्थर की तरह तुम ने गुज़ारी है ज़िंदगी
कितना लहू जलाया तो ये फूल मुस्कुराए
किस किस जतन से तुम ने सँवारी है ज़िंदगी

मैंने भी एक जोहद ए मुसलसल में काट दी
वो उम्र थी जो फूल से अरमाँ लिए हुए
अब वो जुनूँ रहा है न वो मौसम ए बहार
बैठा हूँ अपना चाक ए गिरेबाँ सिये हुए

अब अपने अपने ख़ूँ की अमानत है और हम
और इन अमानतों की हिफ़ाज़त के ख़्वाब हैं
आँखों में कोई प्यास हो दिल में कोई तड़प
फैले हुए उफ़ुक़ से उफ़ुक़ तक सराब हैं

किस को ख़बर थी लम्हा इक ऐसा भी आएगा
माज़ी तमाम फिर सिमट आएगा हाल में
महसूस हो रहा है कि गुज़रा नहीं है वक़्त
इक लम्हा बट गया था फ़क़त माह ओ साल में

तुम भी वही हो मैं भी वही वक़्त भी वही
हाँ इक बुझी बुझी सी चमक चश्म ए नम में है
ये लम्हा जिस के सेहर में खोए हुए हैं हम
कितनी मसर्रतों का सुरूर इस के ग़म में है

3 comments:

  1. वाहःहः
    बहुत उम्दा
    काफी समय बाद दिल को सुकून देने वाली नज़्म पढ़ी।

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  2. हयात के हरूफ रक्म: हैं दोनों के चेहरों पर! ज़िंदगी के मुसाफरत में न रंग धुले न ख़याल और नहीं वो बेशुमार अनाम सी चाहतें! साअत ए दीदार में सिमट गए हर लम्ह ए हयात और उभर उठे वो सारे दर्द और दशाएँ जिन्हें जोहद ए मुसल्सल में आरज़ूओं के दंश झेलने पड़े । पथरायी आँखों और जिस्म में जितनी रुतें नक़्क़ाशी गईं वो गुलहा ए परीशॉं सी, बज़्म ए वस्ल में बिखर जाना चाहती हैं ! परीशानियों का आलम था पर स्नेह की उष्मा से जलते चिराग़ों ने जीवन के तन्हा सफ़र को हर पल एक सुकून और उम्मीद की पुरकशिश जोत से रौशन रखा । दर्द आसूद चेहरों पर पशेमानी की तहरीरों ने इक तवील सोज़ वो गुदाज़ के इक्तिबासात पेश करने चाहे , पर ज़ज़्बात के लहरों ने उन्हें जमने न दिया ! आह ! मैं तुम और ये वक़्त , सब ठहरे हैं! मुसल्सल एक मसर्रत का सुरूर दरपेश है- और फैला है आँखों की चाहत और दिल की तड़प का एक हसीन सराब जिसमें बड़ी शिद्दत से हम समा जाना चाहते हैं ....... यह नाज़नीं नज़्म नौ हसरतों की मुकम्मल तस्वीर बन नौ नौ उमंगों से अभिसार को उद्धत हैं प्रतिपल ! वाह ! बधाई !💐☘️🌹🙏

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  3. तुम भी वही हो मैं भी वही वक़्त भी वही
    हाँ इक बुझी बुझी सी चमक चश्म ए नम में है
    ये लम्हा जिस के सेहर में खोए हुए हैं हम
    कितनी मसर्रतों का सुरूर इस के ग़म में है

    zabardast

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