Friday, September 29, 2017

नज़्म - अली सरदार जाफ़री

मेरे दरवाज़े से अब चाँद को रुख़्सत कर दो
साथ आया है तुम्हारे जो तुम्हारे घर से
अपने माथे से हटा दो ये चमकता हुआ ताज
फेंक दो जिस्म से किरनों का सुनहरी ज़ेवर
तुम ही तन्हा मेरे ग़मख़ाने में आ सकती हो
एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रक्खा है
मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद
दिल ए ख़ूँगश्ता का हँसता हुआ ख़ुशरंग गुलाब

5 comments:

  1. रूप की ज्योतिशिखा जली है । मन मदन मस्त उस रूप को सँजोये है! वर्षों के इश्क़ से उत्तप्त वह रुपहला अक्स अब सुलगते चॉंद सा हो गया ! बहार आई है ! फिजॉंओं में अबके
    फूटेंगे वस्ल के नये कोपल ! पिघला खूँगस्ता दिल सँभाल नहीं पायेगा अब महकते माहताब को! ग़म की तारीक कोठरियों तक बस तेरी ही रवानी है और रवादारी भी ।तुम आओ और आज़ाद कर दो दफ़्न इन इरादों को ! ताज़ त्याग दो ।हँटा दो जिस्म पर के स्वर्णिम आभूषणों का चिलमन । सह नहीं सकता अब दहकते इस चाँद की उष्णता । प्रतिबिंब सरका दो कि अब बिंब ही है पूरे उन्मेष में !
    अद्भुत नज़्म !💐☘️🌹🙏

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  2. वाहःहः
    उम्दा नज़्म।

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  3. वाहःहः
    उम्दा नज़्म।

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  4. वाहःहः
    उम्दा नज़्म।

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  5. बहुत ख़ूबसूरत नज़्म जनाब

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