Friday, September 15, 2017

नज़्म - अहमद फ़राज़

ये तेरी आँखों की बेज़ारी ये लहजे की थकन
कितने अंदेशों की हामिल हैं ये दिल की धड़कनें
पेशतर इसके कि हम फिर से मुख़ालिफ़ सम्त को
बे ख़ुदाहाफ़िज़ कहे चल दें झुका कर गर्दनें
आओ उस दुख को पुकारें जिस की शिद्दत ने हमें
इस क़दर इक दूसरे के ग़म से वाबस्ता किया
वो जो तन्हाई का दुख था तल्ख़ महरूमी का दुख
जिस ने हम को दर्द के रिश्ते में पैवस्ता किया
वो जो इस ग़म से ज़ियादा जाँगुसिल क़ातिल रहा
वो जो इक सैल ए बलाअंगेज़ था अपने लिए
जिस के पल पल में थे सदियों के समुंदर मौजज़न
चीख़ती यादें लिए उजड़े हुए सपने लिए
मैं भी नाकाम ए वफ़ा था तो भी महरूम ए मुराद
हम ये समझे थे कि दर्द ए मुश्तरक रास आ गया
तेरी खोई मुस्कुराहट क़हक़हों में ढल गई
मेरा गुमगश्ता सुकूँ फिर से मिरे पास आ गया
तपती दोपहरों में आसूदा हुए बाज़ू मेरे
तेरी ज़ुल्फ़ें इस तरह बिखरीं घटाएँ हो गईं
तेरा बर्फ़ीला बदन बेसाख़्ता लौ दे उठा
मेरी साँसें शाम की भीगी हवाएँ हो गईं
ज़िंदगी की साअतें रौशन थीं शम्ओं की तरह
जिस तरह से शाम गुज़रे जुगनुओं के शहर में
जिस तरह महताब की वादी में दो साए रवाँ
जिस तरह घुंघरू छनक उट्ठें नशे की लहर में
आओ ये सोचें भी क़ातिल हैं तो बेहतर है यही
फिर से हम अपने पुराने ज़हर को अमृत कहें
तू अगर चाहे तो हम इक दूसरे को छोड़ कर
अपने अपने बेवफ़ाओं के लिए रोते रहें

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