Wednesday, October 18, 2017

ग़मगीन याद - मजाज़ लखनवी

मेरे पहलू ब पहलू जब वो चलती थी गुलिस्ताँ में
फ़राज़ ए आसमाँ पर कहकशाँ हसरत से तकती थी
मोहब्बत जब चमक उठती थी उस की चश्म ए ख़ंदाँ में
ख़मिस्तान ए फ़लक से नूर की सहबा छलकती थी

मेरे बाज़ू पे जब वो ज़ुल्फ़ ए शबगूँ खोल देती थी
ज़माना निकहत ए ख़ुल्द ए बरीं में डूब जाता था
मेरे शाने पे जब सर रख के ठंडी साँस लेती थी
मेरी दुनिया में सोज़-ओ-साज़ का तूफ़ान आता था

वो मेरा शेर जब मेरी ही लय में गुनगुनाती थी
मनाज़िर झूमते थे बाम ओ दर को वज्द आता था
मेरी आँखों में आँखें डाल कर जब मुस्कुराती थी
मेरे ज़ुल्मतकदे का ज़र्रा ज़र्रा जगमगाता था

उमड़ आते थे जब अश्क ए मोहब्बत उस की पलकों तक
टपकती थी दर ओ दीवार से शोख़ी तबस्सुम की
जब उस के होंट आ जाते थे अज़ ख़ुद मेरे होंटों तक
झपक जाती थीं आँखें आसमाँ पर माह ओ अंजुम की

वो जब हंगाम ए रुख़्सत देखती थी मुझको मुड़ मुड़ कर
तो ख़ुद फ़ितरत के दिल में महशर ए जज़्बात होता था
वो महव ए ख़्वाब जब होती थी अपने नर्म बिस्तर पर
तो उसके सर पे मरियम का मुक़द्दस हाथ होता था

ख़बर क्या थी कि वो इक रोज़ मुझ को भूल जाएगी
और उस की याद मुझ को ख़ून के आँसू रुलाएगी

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