Monday, November 13, 2017

नज़्म - अमजद इस्लाम अमजद


मुहब्बत की तबियत में ये कैसा बचपना क़ुदरत ने रक्खा है
कि ये जितनी पुरानी जितनी मजबूत हो जाए
इसे ताईद ए ताज़ा की ज़रूरत फिर भी रहती है
यकीं की आख़िरी हद तक दिलों में लहलहाती है
निगाहों से टपकती हो, लहू में जगमगाती हो
हज़ारों तरह के दिलकश हसीं हाले बनाती हो
इसे इज़हार के लफ़्ज़ों की हाज़त फिर भी रहती है

मुहब्बत माँगती है यूँ गवाही अपने होने की
कि जैसे तिफ़्ल ए सादा शाम को इक बीज बोयें
और शब में बारहा उट्ठे
ज़मीं को खोद कर देखे, कि पौधा कहाँ तक है
मुहब्बत की तबियत में अजब तक़रार की खू है
कि ये इक़रार के लफ़्ज़ों को सुनने से नहीं थकती
बिछड़ने की घड़ी हो या कोई मिलने की साअत हो
इसे बस एक ही धुन है
कहो मुझसे मुहब्बत है, कहो मुझसे मुहब्बत है

तुम्हें मुझसे मुहब्बत है
समन्दर से कहीं गहरी, सितारों से सिवा रोशन
पहाड़ों की तरह क़ायम, हवाओं की तरह दायम
ज़मीं से आसमां तक जिस क़दर अच्छे मनाज़िर हैं
मुहब्बत के कमाए हैं वफ़ा के इस्तआरे हैं
हमारे वास्ते ये चाँदनी रातें सँवरती हैं
सुनहरा दिन निकलता है
मुहब्बत जिस तरफ़ जाए ज़माना साथ चलता है

कुछ ऐसी बेसुकूनी है वफ़ा की सरज़मींनों में
कि जो अहल ए मुहब्बत को सदा बेचैन रखती है
कि जैसे फूल में ख़ुशबू, कि जैसे हाथ में पारा
कि जैसे शाम का तारा
मुहब्बत करने वालों की सहर रातों में रहती है
गुमाँ के शाखचों में आशियाँ बनता है उल्फ़त का
ये आईन ए वस्ल में भी हिज्र के ख़दशों में रहती है

मुहब्बत के मुसाफ़िर ज़िन्दगी जब काट चुकते हैं
थकन की किरचियाँ चुनते वफ़ा की अज़रकें पहने
समय की रहगुज़र की आख़िरी सरहद पे रुकते हैं
तो कोई डूबती साँसों की डोरी थाम कर
धीरे से कहता है
ये सच है ना
हमारी ज़िंदगी इक दूसरे के नाम लिक्खी थी
धुँधलका से जो आँखों के क़रीब ओ दूर फैला है
इसी का नाम चाहत है
तुम्हें मुझसे मुहब्बत थी
तुम्हें मुझसे मुहब्बत है

मुहब्बत की तबियत में ये कैसा बचपना क़ुदरत ने रक्खा है

1 comment:

  1. निगाहों से टपकती हो, लहू में जगमगाती हो
    हज़ारों तरह के दिलकश हसीं हाले बनाती हो
    इसे इज़हार के लफ़्ज़ों की हाज़त फिर भी रहती है

    अाय हाय
    क्या बात है

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