Sunday, October 29, 2017

नज़्म - अमजद इस्लाम अमजद

अगर कभी मेरी याद आए
तो चाँद रातों की नर्म दिलगीर रौशनी में
किसी सितारे को देख लेना
अगर वो नख़्ल ए फ़लक से उड़ कर
तुम्हारे क़दमों में आ गिरे तो ये जान लेना
वो इस्तिआरा था मेरे दिल का
अगर न आए
मगर ये मुमकिन ही किस तरह है
कि तुम किसी पर निगाह डालो
तो उस की दीवार ए जाँ न टूटे
वो अपनी हस्ती न भूल जाए

अगर कभी मेरी याद आए
गुरेज़ करती हवा की लहरों पे हाथ रखना
मैं ख़ुशबुओं में तुम्हें मिलूँगा
मुझे गुलाबों की पत्तियों में तलाश करना
मैं ओसक़तरों के आईनों में तुम्हें मिलूँगा
अगर सितारों में ओसक़तरों में ख़ुशबुओं में न पाओ मुझ को
तो अपने क़दमों में देख लेना
मैं गर्द होती मसाफ़तों में तुम्हें मिलूँगा

कहीं पे रौशन चराग़ देखो तो जान लेना
कि हर पतंगे के साथ मैं भी बिखर चुका हूँ
तुम अपने हाथों से उन पतंगों की ख़ाक दरिया में डाल देना
मैं ख़ाक बन कर समुंदरों में सफ़र करूँगा
किसी न देखे हुए जज़ीरे पे रुक के तुम को सदाएँ दूँगा
समुंदरों के सफ़र पे निकलो
तो उस जज़ीरे पे भी उतरना

Wednesday, October 18, 2017

ग़मगीन याद - मजाज़ लखनवी

मेरे पहलू ब पहलू जब वो चलती थी गुलिस्ताँ में
फ़राज़ ए आसमाँ पर कहकशाँ हसरत से तकती थी
मोहब्बत जब चमक उठती थी उस की चश्म ए ख़ंदाँ में
ख़मिस्तान ए फ़लक से नूर की सहबा छलकती थी

मेरे बाज़ू पे जब वो ज़ुल्फ़ ए शबगूँ खोल देती थी
ज़माना निकहत ए ख़ुल्द ए बरीं में डूब जाता था
मेरे शाने पे जब सर रख के ठंडी साँस लेती थी
मेरी दुनिया में सोज़-ओ-साज़ का तूफ़ान आता था

वो मेरा शेर जब मेरी ही लय में गुनगुनाती थी
मनाज़िर झूमते थे बाम ओ दर को वज्द आता था
मेरी आँखों में आँखें डाल कर जब मुस्कुराती थी
मेरे ज़ुल्मतकदे का ज़र्रा ज़र्रा जगमगाता था

उमड़ आते थे जब अश्क ए मोहब्बत उस की पलकों तक
टपकती थी दर ओ दीवार से शोख़ी तबस्सुम की
जब उस के होंट आ जाते थे अज़ ख़ुद मेरे होंटों तक
झपक जाती थीं आँखें आसमाँ पर माह ओ अंजुम की

वो जब हंगाम ए रुख़्सत देखती थी मुझको मुड़ मुड़ कर
तो ख़ुद फ़ितरत के दिल में महशर ए जज़्बात होता था
वो महव ए ख़्वाब जब होती थी अपने नर्म बिस्तर पर
तो उसके सर पे मरियम का मुक़द्दस हाथ होता था

ख़बर क्या थी कि वो इक रोज़ मुझ को भूल जाएगी
और उस की याद मुझ को ख़ून के आँसू रुलाएगी

Monday, October 16, 2017

उसकी बातें उदास कर देंगी

अपनी तन्हाईयों से पूछा है
शब ए हिज्रां से बात कर ली है
मेरे अंदर की सहमी ख़ामोशी
मेरे बाहर का हँसता चेहरा भी
रात के सनसनाते लम्हें भी
दिन का डसता हुआ उजाला भी
ज़ब्त का टूटता ये बंधन भी
सब्र का छूटता ये दामन भी
उसकी यादें भी कुछ इशारों में
मुझको मजबूर कर रहे हैं सब
आओ सब उसके पास चलते हैं
उससे कहते हैं कुछ दवा कर दो
अपनी फ़ितरत को छोड़ कर इक पल
कोई वादा तो तुम वफ़ा कर दो
इनकी बातों से कुछ नहीं होगा
आख़िरी फ़ैसला तो दिल का है
दिल ये कहता है उससे मिलने से
अपनी तन्हाईयाँ ही अच्छी हैं
अब अकेले में लग गया है दिल
उससे मिलने हमें नहीं जाना
उसकी बातें उदास कर देंगी

Friday, October 13, 2017

किसी का क्या बिगड़ जाता - नज़्म

किसी का क्या बिगड़ जाता
अगर हम एक हो जाते
हमेशा की तरह सूरज तुलू मशरिक़ से ही होता
हमेशा की तरह रातों में तारे जगमगाते और
बहारों में गुल ओ बुलबुल महकते, चहचहाते हाँ
किसी का क्या बिगड़ जाता
किसी का क्या बिगड़ जाता

न मैं फिरता यक ओ तन्हा
न तुम गुमसुम रहा करतीं
न जीवन में कमी रहती
न आंखों में नमी रहती
न मौसम रूठते हमसे
न रोज़ ओ शब गराँ होते
गुज़रते पल यूँ हैरत से हमें देखा नहीं करते
अगर हम एक हो जाते

अगर हम एक हो जाते
तो रूहों में बसी है जो
अज़ल की प्यास न रहती
ख़लिश सी ज़िंदगी में फिर
पस ए एहसास न रहती
कोई हसरत नहीं रहती
कोई भी आस न रहती
उदासी यास न रहती

किसी का क्या बिगड़ जाता
अगर हम एक हो जाते

आबला - अमजद इस्लाम अमजद

उदासी के उफ़ुक़ पर जब तुम्हारी याद के जुगनू चमकते हैं
तो मेरी रूह पर रक्खा हुआ ये हिज्र का पत्थर
चमकती बर्फ़ की सूरत पिघलता है
अगरचे यूँ पिघलने से ये पत्थर संगरेज़ा तो नहीं बनता
मगर इक हौसला सा दिल को होता है
कि जैसे सर ब सर तारीक शब में भी
अगर इक ज़र्दरू सहमा हुआ तारा निकल आए
तो क़ातिल रात का बेइस्म जादू टूट जाता है
मुसाफ़िर के सफ़र का रास्ता तो कम नहीं होता
मगर तारे की चिलमन से
कोई भूला हुआ मंज़र अचानक जगमगाता है
सुलगते पाँव में इक आबला सा फूट जाता है

Sunday, October 1, 2017

मुद्दत के बाद - हिमायत अली शायर

मुद्दत के बाद तुम से मिला हूँ तो ये खुला
ये वक़्त और फ़ासला धोखा नज़र का था
चेहरे पे उम्र भर की मसाफ़त रक़म सही
दिल के लिए तमाम सफ़र लम्हा भर का था

कैसी अजीब साअत ए दीदार है कि हम
फिर यूँ मिले कि जैसे कभी दूर ही न थे
आँखों में कमसिनी के वो सब ख़्वाब जाग उठे
जिनमें निगाह ओ दिल कभी मजबूर ही न थे

मासूम किस क़दर थीं वो बेनाम चाहतें
बचपन से हमकनार था अहद ए शबाब भी
यूँ आतिश ए बदन में थी शबनम घुली हुई
महताब से ज़ियादा न था आफ़्ताब भी

फिर वो हवा चली कि सभी कुछ बिखर गया
वो महफ़िलें वो दोस्त वो गुलरंग क़हक़हे
अब रक़्स ए गर्दबाद की सूरत है ज़िंदगी
ये वक़्त का अज़ाब कहाँ तक कोई सहे

अब तुम मिलीं तो कितने ही ग़म हैं तुम्हारे साथ
पत्थर की तरह तुम ने गुज़ारी है ज़िंदगी
कितना लहू जलाया तो ये फूल मुस्कुराए
किस किस जतन से तुम ने सँवारी है ज़िंदगी

मैंने भी एक जोहद ए मुसलसल में काट दी
वो उम्र थी जो फूल से अरमाँ लिए हुए
अब वो जुनूँ रहा है न वो मौसम ए बहार
बैठा हूँ अपना चाक ए गिरेबाँ सिये हुए

अब अपने अपने ख़ूँ की अमानत है और हम
और इन अमानतों की हिफ़ाज़त के ख़्वाब हैं
आँखों में कोई प्यास हो दिल में कोई तड़प
फैले हुए उफ़ुक़ से उफ़ुक़ तक सराब हैं

किस को ख़बर थी लम्हा इक ऐसा भी आएगा
माज़ी तमाम फिर सिमट आएगा हाल में
महसूस हो रहा है कि गुज़रा नहीं है वक़्त
इक लम्हा बट गया था फ़क़त माह ओ साल में

तुम भी वही हो मैं भी वही वक़्त भी वही
हाँ इक बुझी बुझी सी चमक चश्म ए नम में है
ये लम्हा जिस के सेहर में खोए हुए हैं हम
कितनी मसर्रतों का सुरूर इस के ग़म में है