Sunday, May 28, 2017

ख़त - परवीन शाक़िर

जान से प्यारे
कुछ दिनों से बहुत याद आने लगे हो
तुम्हारा बिछड़ना तो तुम्हारे मिलने से बढ़कर
तुम्हें मेरे नज़दीक लाने लगा है

मैं हर वक़्त ख़ुद को
तुम्हारे जवां बाज़ुओं में पिघलते देखती हूँ
मेरे होंठ अब तक
तुम्हारी मुहब्बत से नम हैं
तुम्हारा ये कहना गलत तो न था कि
मेरे लब तुम्हारे लबों के सबब ही गुलनार हैं

तो ख़ुश हो
अब तो मेरे आईने का भी यही कहना है कि
मैं हर बार बालों में कंघी अधूरी ही कर पाती हूँ
क्या करूँ आख़िर
तुम्हारी मुहब्बत भरी उंगलियाँ रोक लेती हैं मुझको
अब मैं मानती जा रही हूँ
मेरे अंदर की सारी रातें और बाहर के मौसम
तुम्हारे सबब से थे तुम्हारे लिए थे

जवाबन
ख़िजां मुझमें चाहोगे देखना
या कि फ़स्ल ए बहारां
कोई भी फ़ैसला हो तुम्हारा
मंज़ूर है
मगर, जल्द कर दो तो अच्छा है

तुम्हारी, फ़क़त तुम्हारी.... परवीन शाक़िर

2 comments:

  1. तो खुश हो !,
    साँस थम गई वाह

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