Wednesday, February 7, 2018

सुनो

सुनो
अब रात साढ़े दस बजे
फ़ोन की घन्टी नहीं बजती
लेकिन अब भी उस मख़सूस वक़्त पर
समाअतों को इंतज़ार होता है
जैसे अचानक
फ़ोन की घन्टी बज उठेगी
और फ़ोन उठाने पर
दूसरी जानिब से
कोई आहिस्ता से पूछेगा
"सो तो नहीं गए थे?
तबियत कैसी है?
और हाँ, दवा बाक़ायदगी से लेते हो ना?
घर में सब लोग कैसे हैं?
अपना ख़याल रखना
अच्छा फिर बात होगी"
ख़ुदा हाफ़िज़ कह कर
रिसीवर रख देगा

दुश्वारी - जावेद अख़्तर

मैं भूल जाऊँ तुम्हें
अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो
कोई ख़्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ
कमबख़्त
भुला न पाया वो सिलसिला
जो था ही नहीं
वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त
जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं

बहुत करीब हो तुम - अली सरदार जाफ़री

बहुत क़रीब हो तुम फिर भी मुझ से कितनी दूर
कि दिल कहीं है नज़र है कहीं कहीं तुम हो
वो जिस को पी न सकी मेरी शोलाआशामी
वो कूज़ा ए शकर ओ जाम ए अम्बगीं तुम हो
मेरे मिज़ाज में आशुफ़्तगी सबा की है
मिली कली की अदा, गुल की तमकनत तुम को
सबा की गोद में फिर भी सबा से बेगाना
तमाम हुस्न ओ हक़ीक़त तमाम अफ़्साना
वफ़ा भी जिस पे है नाज़ाँ वो बेवफ़ा तुम हो
जो खो गई है मेरे दिल की वो सदा तुम हो

बहुत क़रीब हो तुम फिर भी मुझ से कितनी दूर
हिजाब ए जिस्म अभी है हिजाब ए रूह अभी
अभी तो मंज़िल ए सद मेहर ओ माह बाक़ी है
हिजाब ए फ़ासला हा ए निगाह बाक़ी है
विसाल ए यार अभी तक है आरज़ू का फ़रेब