Thursday, January 11, 2018

कौन - अहमद नदीम क़ासमी

कायनात ए दिल में ये गाता हुआ कौन आ गया
हर तरफ़ तारे से बरसाता हुआ कौन आ गया
चार जानिब फूल बिखराता हुआ कौन आ गया
ये मुझे नींदों से चौंकाता हुआ कौन आ गया

मीठी मीठी आग एहसासात में जलने लगी
रूह पर लिपटी हुई ज़ंजीर ए ग़म गलने लगी
ज़िंदगी की शाख़ ए मुर्दा फूलने फलने लगी
नकहतों से चूर शर्मीली हवा चलने लगी
दहर में मस्ती को नहलाता हुआ कौन आ गया

ज़र्रा हाए ख़ाक तारों की ख़बर लाने लगे
आसमानों पर धनक के रंग लहराने लगे
नख्ल अपनी शान ए रानाई पे इतराने लगे
सर्द झोंके डालियों के साज़ पर गाने लगे
क़ल्ब ए आलम को ये तड़पाता हुआ कौन आ गया

ज़िंदगी की तल्खियाँ एक ख़्वाब होकर रह गईं
शौक़ की गहराइयाँ पायाब होकर रह गईं
काली रातें रुकश ए महताब होकर रह गईं
सुस्त नब्जें रेशा ए सीमाब होकर रह गईं
बर्फ़ की मानिंद लहराता हुआ कौन आ गया

चुन लिए किसने मेरी पलकों से अश्क़ों के शरार
किसने अपने क़ल्ब से भींचा है मेरा क़ल्ब ए ज़ार
छंट गए जज़्बात पर छाए हुए गहरे ग़ुबार
मुड़ गई अफ़कार में चुभती हुई इक नोक ए ख़ार
बीती हुई घड़ियों को ये लौटाता हुआ कौन आ गया

जो कभी तारों में जाकर झिलमिलाया, वो न हो
जो कभी फूलों में छुपकर मुस्कुराया, वो न हो
दूर रहकर भी जो रग रग में समाया, वो न हो
जो मेरे अब तक बुलाने पर न आया, वो न हो
ये लजाता, रुकता, बल खाता हुआ कौन आ गया

ये तो ख़ुद मेरे तसव्वुर का है इक अक़्स ए जमील
ये तो दिल की धड़कनों में हो रही है काल ओ कील
आह लेकिन ये रुख़ ए पुरनूर ये चश्म ए कहील
लड़खड़ाती चाल में पिन्हां ख़िराम ए रोद ए नील
आईना सा मुझको दिखलाता हुआ कौन आ गया

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