Thursday, November 30, 2017

दोराहे - कफ़ील आज़र


कब तलक ख़्वाबों से धोका खाओगी
कब तलक स्कूल के बच्चों से दिल बहलाओगी
कब तलक मुन्ना से शादी के करोगी तज़्किरे
ख़्वाहिशों की आग में जलती रहोगी कब तलक
छुट्टियों में कब तलक हर साल दिल्ली जाओगी
कब तलक शादी के हर पैग़ाम को ठुकराओगी
चाय में पड़ता रहेगा और कितने दिन नमक
बंद कमरे में पढ़ोगी और कितने दिन ख़ुतूत
ये उदासी कब तलक
कब तलक नज़्में लिखोगी
रोओगी यूँ रात की ख़ामोशियों में कब तलक
बाइबल में कब तलक ढूँढोगी ज़ख़्मों का इलाज
मुस्कुराहट में छुपाओगी कहाँ तक अपने ग़म
कब तलक पूछोगी टेलीफ़ोन पर मेरा मिज़ाज
फ़ैसला कर लो कि किस रस्ते पे चलना है तुम्हें
मेरी बाँहों में सिमटना है हमेशा के लिए
या हमेशा दर्द के शोलों में जलना है तुम्हें
कब तलक ख़्वाबों से धोके खाओगी

Sunday, November 19, 2017

नज़्म - साक़ी फ़ारूक़ी

ऐ दिल पहले भी तन्हा थे ऐ दिल हम तन्हा आज भी हैं
और उन ज़ख़्मों और दाग़ों से अब अपनी बातें होती हैं
जो ज़ख़्म कि सुर्ख़ गुलाब हुए जो दाग़ कि बदर ए मुनीर हुए
इस तरह से कब तक जीना है मैं हार गया इस जीने से

कोई अब्र उड़े किसी क़ुल्ज़ुम से रस बरसे मेरे वीराने पर
कोई जागता हो कोई कुढ़ता हो मेरे देर से वापस आने पर
कोई साँस भरे मेरे पहलू में कोई हाथ धरे मेरे शाने पर
और दबे दबे लहजे में कहे तुमने अब तक बड़े दर्द सहे
तुम तन्हा तन्हा जलते रहे तुम तन्हा तन्हा चलते रहे
सुनो तन्हा चलना खेल नहीं चलो आओ मेरे हमराह चलो
चलो नए सफ़र पर चलते हैं चलो मुझे बना के गवाह चलो

Monday, November 13, 2017

नज़्म - अमजद इस्लाम अमजद


मुहब्बत की तबियत में ये कैसा बचपना क़ुदरत ने रक्खा है
कि ये जितनी पुरानी जितनी मजबूत हो जाए
इसे ताईद ए ताज़ा की ज़रूरत फिर भी रहती है
यकीं की आख़िरी हद तक दिलों में लहलहाती है
निगाहों से टपकती हो, लहू में जगमगाती हो
हज़ारों तरह के दिलकश हसीं हाले बनाती हो
इसे इज़हार के लफ़्ज़ों की हाज़त फिर भी रहती है

मुहब्बत माँगती है यूँ गवाही अपने होने की
कि जैसे तिफ़्ल ए सादा शाम को इक बीज बोयें
और शब में बारहा उट्ठे
ज़मीं को खोद कर देखे, कि पौधा कहाँ तक है
मुहब्बत की तबियत में अजब तक़रार की खू है
कि ये इक़रार के लफ़्ज़ों को सुनने से नहीं थकती
बिछड़ने की घड़ी हो या कोई मिलने की साअत हो
इसे बस एक ही धुन है
कहो मुझसे मुहब्बत है, कहो मुझसे मुहब्बत है

तुम्हें मुझसे मुहब्बत है
समन्दर से कहीं गहरी, सितारों से सिवा रोशन
पहाड़ों की तरह क़ायम, हवाओं की तरह दायम
ज़मीं से आसमां तक जिस क़दर अच्छे मनाज़िर हैं
मुहब्बत के कमाए हैं वफ़ा के इस्तआरे हैं
हमारे वास्ते ये चाँदनी रातें सँवरती हैं
सुनहरा दिन निकलता है
मुहब्बत जिस तरफ़ जाए ज़माना साथ चलता है

कुछ ऐसी बेसुकूनी है वफ़ा की सरज़मींनों में
कि जो अहल ए मुहब्बत को सदा बेचैन रखती है
कि जैसे फूल में ख़ुशबू, कि जैसे हाथ में पारा
कि जैसे शाम का तारा
मुहब्बत करने वालों की सहर रातों में रहती है
गुमाँ के शाखचों में आशियाँ बनता है उल्फ़त का
ये आईन ए वस्ल में भी हिज्र के ख़दशों में रहती है

मुहब्बत के मुसाफ़िर ज़िन्दगी जब काट चुकते हैं
थकन की किरचियाँ चुनते वफ़ा की अज़रकें पहने
समय की रहगुज़र की आख़िरी सरहद पे रुकते हैं
तो कोई डूबती साँसों की डोरी थाम कर
धीरे से कहता है
ये सच है ना
हमारी ज़िंदगी इक दूसरे के नाम लिक्खी थी
धुँधलका से जो आँखों के क़रीब ओ दूर फैला है
इसी का नाम चाहत है
तुम्हें मुझसे मुहब्बत थी
तुम्हें मुझसे मुहब्बत है

मुहब्बत की तबियत में ये कैसा बचपना क़ुदरत ने रक्खा है