मुंह ही मुंह,कुछ बुड बुड करता
बहता रहता है ये दरिया
छोटी छोटी ख़्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में
रेत पे रेंगते रेंगते सारी उम्र कटी है
पुल पे चढ़कर बहने की ख़्वाहिश है दिल में
जाड़ों में जब कोहरा उसके पूरे मुंह पर आ जाता है
और हवा लहरा के उसका आँचल पोंछ के जाती है
ख़्वाहिश है कि एक दफ़ा तो
वो भी उसके साथ उड़े और
जंगल से गायब हो जाये
कभी कभी यूँ भी होता है
पुल से रेल गुज़रती है तो बहता दरिया
पल के पल बस रुक जाता है
इतनी सी उम्मीद लिए
शायद फिर से देख सके वो
एक दिन उस लड़की का चेहरा
जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के
अपना वर माँगा था
उस लड़की की सूरत उसने
अक्स उतारा था जबसे
तह में रख ली थी
Tuesday, July 21, 2015
दरिया--गुलज़ार
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