Wednesday, July 8, 2015

आख़िरी ख़त-- फैज़ अहमद फैज़

वो वक़्त मेरी जान बहुत दूर नहीं है
जब दर्द से रुक जाएँगी सब ज़ीस्त की राहें
और हद से गुज़र जायेगा अंदोह ए निहानी
थक जाएँगी तरसी हुई नाकाम निगाहें
छिन जायेंगे मुझसे मेरे आंसू मेरी आहें
छिन जायेगी मुझसे मेरी बेकार जवानी
शायद मेरी उल्फ़त को बहुत याद करोगी
अपने दिल ए नाशाद को बर्बाद करोगी

आओगी मेरी गोर पे तुम अश्क़ बहाने
नौखेज़ बहारों के हसीं फूल चढ़ाने
शायद मेरी तुर्बत को भी ठुकरा के चलोगी
शायद मेरी बे सूद वफाओं पे हंसोगी
इस वज़् ए करम का भी तुम्हें पास न होगा
लेकिन दिल ए नाकाम को एहसास न होगा

अल किस्सा मआल ए ग़म ए उल्फ़त पे हंसो तुम
या अश्क़ बहाती रहो फ़रियाद करो तुम
माज़ी पे नदामत हो तुम्हें या कि मसर्रत
खामोश पड़ा सोयेगा वामांदा ए उल्फ़त

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