Tuesday, July 21, 2015

दरिया--गुलज़ार

मुंह ही मुंह,कुछ बुड बुड करता
बहता रहता है ये दरिया
छोटी छोटी ख़्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में
रेत पे रेंगते रेंगते सारी उम्र कटी है
पुल पे चढ़कर बहने की ख़्वाहिश है दिल में
जाड़ों में जब कोहरा उसके पूरे मुंह पर आ जाता है
और हवा लहरा के उसका आँचल पोंछ के जाती है
ख़्वाहिश है कि एक दफ़ा तो
वो भी उसके साथ उड़े और
जंगल से गायब हो जाये
कभी कभी यूँ भी होता है
पुल से रेल गुज़रती है तो बहता दरिया
पल के पल बस रुक जाता है
इतनी सी उम्मीद लिए
शायद फिर से देख सके वो
एक दिन उस लड़की का चेहरा
जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के
अपना वर माँगा था
उस लड़की की सूरत उसने
अक्स उतारा था जबसे
तह में रख ली थी

Thursday, July 9, 2015

एक और रात -- गुलज़ार

रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात खामोश है रोती नहीं हंसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद भी उड़ा जाता है
खाली खाली कोई बजरा सा बहा जाता है

चाँद की किरनों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की एक धूल उड़ी जाती है

काश एक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो कि क्या होता है

Wednesday, July 8, 2015

आख़िरी ख़त-- फैज़ अहमद फैज़

वो वक़्त मेरी जान बहुत दूर नहीं है
जब दर्द से रुक जाएँगी सब ज़ीस्त की राहें
और हद से गुज़र जायेगा अंदोह ए निहानी
थक जाएँगी तरसी हुई नाकाम निगाहें
छिन जायेंगे मुझसे मेरे आंसू मेरी आहें
छिन जायेगी मुझसे मेरी बेकार जवानी
शायद मेरी उल्फ़त को बहुत याद करोगी
अपने दिल ए नाशाद को बर्बाद करोगी

आओगी मेरी गोर पे तुम अश्क़ बहाने
नौखेज़ बहारों के हसीं फूल चढ़ाने
शायद मेरी तुर्बत को भी ठुकरा के चलोगी
शायद मेरी बे सूद वफाओं पे हंसोगी
इस वज़् ए करम का भी तुम्हें पास न होगा
लेकिन दिल ए नाकाम को एहसास न होगा

अल किस्सा मआल ए ग़म ए उल्फ़त पे हंसो तुम
या अश्क़ बहाती रहो फ़रियाद करो तुम
माज़ी पे नदामत हो तुम्हें या कि मसर्रत
खामोश पड़ा सोयेगा वामांदा ए उल्फ़त