Thursday, November 24, 2016

आज की शब - परवीन शाक़िर

आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी

रात गहरी है मगर चाँद चमकता है अभी
मेरे माथे पे तेरा प्यार दमकता है अभी
मेरी साँसों में तिरा लम्स महकता है अभी
मेरे सीने में तेरा नाम धड़कता है अभी
ज़ीस्त करने को मेरे पास बहुत कुछ है अभी

तेरी आवाज़ का जादू है अभी मेरे लिए
तेरे मलबूस की ख़ुशबू है अभी मेरे लिए
तेरी बाँहें तेरा पहलू है अभी मेरे लिए
सबसे बढ़कर मिरी जाँ तू है अभी मेरे लिए
ज़ीस्त करने को मेरे पास बहुत कुछ है अभी
आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी

तुम्हारी ज़िन्दगी में - परवीन शाक़िर

तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहाँ पर हूँ ?

हवा-ए-सुबह में
या शाम के पहले सितारे में
झिझकती बूँदा-बाँदी में
कि बेहद तेज़ बारिश में
रुपहली चाँदनी में
या कि फिर तपती दुपहरी में
बहुत गहरे ख़यालों में
कि बेहद सरसरी धुन में

तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहाँ पर हूँ 

हुजूमे-कार से घबरा के
साहिल के किनारे पर
किसी वीक-ऐण्ड का वक़्फ़ा
कि सिगरेट के तसलसुल में
तुम्हारी उँगलियों के बीच
आने वाली कोई बेइरादा रेशमी फ़ुरसत
कि जामे-सुर्ख़ में
यकसर तही
और फिर से
भर जाने का ख़ुश-आदाब लम्हा
कि इक ख़्वाबे-मुहब्बत टूटने
और दूसरा आग़ाज़ होने के
कहीं माबैन इक बेनाम लम्हे की फ़रागत

तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहाँ पर हूँ 

ईद का दिन - परवीन शाक़िर

गए बरस की ईद का दिन क्या अच्छा था
चाँद को देख के उसका चेहरा देखा था
फ़ज़ा में कीट्स के लहजे की नरमाहट थी
मौसम अपने रंग में फ़ैज़ का मिश्रा था
दुआ के बेआवाज़ उलूही लम्हों में
वो लम्हा भी कितना दिलकश लम्हा था
हाथ उठा कर जब आँखों ही आँखों में
उसने मुझको अपने रब से माँगा था
फिर मेरे चेहरे को हाथों में लेकर
कितने प्यार से मेरा माथा चूमा था

हवा कुछ आज की शब का भी अहवाल सुना
क्या वो अपनी छत पर आज अकेला था
या कोई मेरे जैसी साथ थी और उसने
चाँद को देख के उसका चेहरा देखा था

अजनबी - परवीन शाक़िर

अजनबी!
कभी ज़िन्दगी में अगर तू अकेला हो
और दर्द हद से गुज़र जाए
आँखें तेरी
बात-बेबात रो रो पड़ें
तब कोई अजनबी
तेरी तन्हाई के चाँद का नर्म हाला बने
तेरी क़ामत का साया बने
तेरे ज़ख़्मों पे मरहम रखे
तेरी पलकों से शबनम चुने
तेरे दुख का मसीहा बने

Tuesday, November 8, 2016

रम्ज़ - जॉन एलिया

तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता

दरीचा-हा-ए-ख़याल - जॉन एलिया

चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें
और ये सब दरीचा-हा-ए-ख़याल
जो तुम्हारी ही सम्त खुलते हैं
बंद कर दूँ कुछ इस तरह कि यहाँ
याद की इक किरन भी आ न सके
चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें
और ख़ुद भी न याद आऊँ तुम्हें
जैसे तुम सिर्फ़ इक कहानी थीं
जैसे मैं सिर्फ़ इक फ़साना था

सज़ा - जॉन एलिया

हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं
तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम
मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं
तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो अज़ाब में
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
पस सर-ब-सर अज़िय्यत ओ आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िंदगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहाँ के साया ओ परतव से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-मेहर ही रहा
तुम इंतिहा-ए-इश्क़ का मेआ'र ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
मैं ने ये कब कहा था मोहब्बत में है नजात
मैं ने ये कब कहा था वफ़ादार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मिरे लिए
बाज़ार-ए-इल्तिफ़ात में नादार ही रहो
जब मैं तुम्हें नशात-ए-मोहब्बत न दे सका
ग़म में कभी सुकून-ए-रिफ़ाक़त न दे सका
जब मेरे सब चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं
फिर मुझ को चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं

Saturday, November 5, 2016

जहाँ रेहाना रहती थी - अख़्तर शीरानी

यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी
वो इस वादी की शहज़ादी थी और शाहाना रहती थी
कँवल का फूल थी संसार से बेगाना रहती थी
नज़र से दूर मिस्ल-ए-निकहत-ए-मस्ताना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ रेहाना रहती थी

इन्ही सहराओं में वो अपने गल्ले को चराती थी
इन्हीं चश्मों पे वो हर रोज़ मुँह धोने को आती थी
इन्ही टीलों के दामन में वो आज़ादाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

खजूरों के तले वो जो खंडर से झिलमिलाते हैं
ये सब 'रेहाना' के मासूम अफ़्साने सुनाते हैं
वो इन खंडरों में इक दिन सूरत-ए-अफ़्साना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

मिरे हमदम ये नख़लिस्तान इक दिन उस का मस्कन था
इसी के ख़र्रमी-ए-आग़ोश में उस का नशेमन था
इसी शादाब वादी में वो बे-बाकाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

ये फूलों की हसीं आबादियाँ काशाना थीं उस का
वो इक बुत थी ये सारी वादियाँ बुत-ख़ाना थीं उस का
वो इस फ़िरदौस-ए-वज्द-ओ-रक़्स में मस्ताना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

तबाही की हवा इस ख़ाक-ए-रंगीं तक न आई थी
ये वो ख़ित्ता था जिस में नौ-बहारों की ख़ुदाई थी
वो इस ख़ित्ते में मिस्ल-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

इसी वीराना में इक दिन बहिश्तें लहलहाती थीं
घटाएँ घिर के आती थीं हवाएँ मुस्कुराती थीं
कि वो बन कर बहार-ए-जन्नत-ए-वीराना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

ये वीराना गुज़र जिस में नहीं है कारवानों का
जहाँ मिलता नहीं नाम-ओ-निशाँ तक सारबानों का
इसी वीराने में इक दिन मिरी 'रेहाना' रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

यहीं आबाद थी इक दिन मिरे अफ़्कार की मलका
मिरे जज़्बात की देवी मिरे अशआर की मलका
वो मलका जो ब-रंग-ए-अज़्मत-ए-शाहाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ रेहाना रहती थी

सबा शाख़ों में नख़लिस्ताँ की जिस दम सरसराती है
मुझे हर लहर से 'रेहाना' की आवाज़ आती है
यहीं 'रेहाना' रहती है यहीं 'रेहाना' रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

फ़ज़ाएँ गूँजती हैं अब भी उन वहशी तरानों से
सुनो आवाज़ सी आती है उन ख़ाकी चटानों से
कि जिन में वो ब-रंग-ए-नग़्म-ए-बेगाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

मिरे हमदम जुनून-ए-शौक़ का इज़हार करने दे
मुझे उस दश्त की इक इक कली से प्यार करने दे
जहाँ इक दिन वो मिस्ल-ए-गुंचा-ए-मस्ताना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

ब-रब्ब-ए-काबा उस की याद में उम्रें गँवा दूँगा
मैं उस वादी के ज़र्रे ज़र्रे पर सज्दे बिछा दूँगा
जहाँ वो जान-ए-काबा अज़्मत-ए-बुत-ख़ाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

वो इस टीले पर अक्सर आशिक़ाना गीत गाती थी
पुराने सूरमाओं के फ़साने गुनगुनाती थी
यहीं पर मुंतज़िर मेरी वो बेताबाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

खजूरों के हसीं साए ज़मीं पर लहलहाते थे
सितारे जगमगाते थे शगूफ़े खिलखिलाते थे
फ़ज़ाएँ मुंतशिर इक निकहत-ए-मस्ताना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

यहीं बस्ती थी ऐ हमदम मिरे रूमान की बस्ती
मिरे अफ़्सानों की दुनिया मिरे विज्दान की बस्ती
यहीं 'रेहाना' बस्ती थी यहीं 'रेहाना' बस्ती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

शमीम-ए-ज़ुल्फ़ से उस की महक जाती थी कुल वादी
निगाह-ए-मस्त से उस की बहक जाती थी कुल वादी
हवाएँ पर-फ़िशाँ रूह-ए-मय-ओ-मय-ख़ाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

वो गेसू-ए-परेशाँ या घटाएँ रक़्स करती थीं
फ़ज़ाएँ वज्द करती थीं हवाएँ रक़्स करती थीं
वो इस फ़िरदौस-ए-वज्द-ओ-रक़्स में मस्ताना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

गुदाज़-ए-इश्क़ से लबरेज़ था क़ल्ब-ए-हज़ीं उस का
मगर आईना-दार-ए-शर्म था रू-ए-हसीं इस का
ख़मोशी में छुपाए नग़्मा-ए-मस्ताना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

उसे फूलों ने मेरी याद में बेताब देखा है
सितारों की नज़र ने रात भर बे-ख़्वाब देखा है
वो शम-ए-हुस्न थी पर सूरत-ए-परवाना रहती थी
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

यहीं हम-रंग-ए-गुल-हा-ए-हसीं रहती थी 'रेहाना'
मिसाल-ए-हूर-ए-फ़िरदौस-ए-बरीं रहती थी 'रेहाना'
यहीं 'रेहाना' रहती थी यहीं 'रेहाना' रहती थी
यहीं वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी

पयाम दर्द-ए-दिल 'अख़्तर' दिए जाता हूँ वादी को
सलाम-ए-रुख़्सत-ए-ग़मगीं किए जाता हूँ वादी को
सलाम ऐ वादी-ए-वीराँ जहाँ 'रेहाना' रहती थी

Monday, August 29, 2016

कायनात के ख़ालिक़

कायनात के ख़ालिक़
देख तो मेरा चेहरा
आज मेरे होठों पर
कैसी मुस्कुराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कुराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़मत को
तू तो मानता होगा
हाँ, तेरा गुमाँ सच्चा है
हाँ, कि आज मैंने भी
ज़िन्दगी जनम दी है !

-- परवीन शाक़िर

Friday, August 12, 2016

हमेशा देर कर देता हूँ मैं

हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में
ज़रूरी बात कहनी हो कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

मदद करनी हो उसकी, यार की ढारस बंधाना हो
बहुत देरीना रस्तों पर किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

बदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ उसको जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में

मुनीर नियाज़ी

Sunday, February 21, 2016

मुहब्बत-- निदा फ़ाज़ली

वो दोनों
बहुत ग़रीब हैं
उनका कोई घर है न ठिकाना
लेकिन छै रोज़ मुसलसल
अलग अलग मकानों में
मेहनत मजदूरी करने के बाद
जब वो
इतवार की शाम को
एक दूसरे से मिलने आते हैं
तो सारे शहर को अमीर बना जाते हैं

Monday, January 25, 2016

रात तामीर करें-- गुलज़ार

एक रात चलो तामीर करें
ख़ामोशी के संगमरमर पर
हम तान के तारीकी सर की
दो शम्में जलाएं जिस्मों की

जब ओस दबे पाँव उतरे
आहट भी न पाये साँसों की
कोहरे की रेशमी खुशबू में
खुशबू की तरह ही लिपटे रहें
और जिस्म के सोंधे परदों में
रूहों की तरह लहराते रहें