Wednesday, December 13, 2017

अभी ठहरो

अभी ठहरो
अभी कुछ दिन लगेंगे
वस्ल को ख़्वाहिश बनाने में
तुम्हें अपना समझने के लिए
दिल को मनाने में
अभी कुछ दिन लगेंगे

अभी हम अपनी अपनी ख़्वाहिशों को
दिल से मिलने दें
उन्हें महसूस करने दें
वफ़ा क्या और तक़ाज़ा ए मुहब्बत की हदें क्या हैं
हदों की सरहदें क्या हैं
फिर इनके पार जाने का सबब क्या है
अभी ठहरो
अभी कुछ दिन लगेंगे

ध्यान ओ बेध्यानी में
तुम्हारी भीगती बातों की दरिया की रवानी में
कहानी ही कहानी में
अगर बेज़ा वो मंज़िल, कोई ख़्वाहिश
दिलों की कोख से पैदा हुई तो कौन देखेगा
हमारे नाम की सच्चाई को
और ख़्वाहिशों के बेनसब महताब चेहरों को
अभी ठहरो
अभी कुछ दिन लगेंगे

रिश्ता ए बेनाम को हमनाम करने में
कहानी को किसी आगाज़ से अंजाम करने में
कहीं इज़हार करने में
हमें इक़रार करने में
अभी ठहरो
अभी कुछ दिन लगेंगे

Tuesday, December 5, 2017

मेरा सफ़र - अली सरदार जाफ़री

फिर एक दिन ऐसा आएगा
आँखों के दिये बुझ जाएँगे
हाथों के कंवल कुम्हलायेंगे
और बर्ग ए ज़बाँ से नुत्क़ ओ सदा
की हर तितली उड़ जाएगी
एक काले समन्दर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हँसती हुई
सारी शक्लें खो जाएँगी
खूं की गर्दिश दिल की धड़कन
सब रागनियाँ सो जाएँगी
और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर
हँसती हुई हीरे की ये कनी
ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं
इसकी सुबहें इसकी शामें
बेजाने हुए बेसमझे हुए
इक मुश्त ए ग़ुबार ए इंसाँ पर
शबनम की तरह रो जाएँगी
हर चीज़ भुला दी जाएगी
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जाएगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन से बोलूँगा
चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊंगा
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती पत्ती कली कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रँग ए हिना आहंग ए ग़ज़ल
अंदाज़ ए सुख़न बन जाऊँगा
रुख़सार ए उरुस ए नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा
जाड़ों की हवाएँ दामन में
जब फ़स्ल ए ख़िजाँ को लाएँगी
रहरौ कर जवां कदमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
हँसने की सदाएँ आएँगी
धरती की सुनहरी सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जाएँगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है सरदार यहाँ
हर माशूका सुल्ताना है

मैं एक गुरेज़ां लम्हा हूँ
अय्याम के अफ़सूंख़ाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़ ए सफ़र जो रहता है
माज़ी की सुराही के दिल से
मुस्तक़बिल के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ