Sunday, August 27, 2017

दर्द आएगा दबे पाँव - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


और कुछ देर में जब फिर मेरे तन्हा दिल को
फ़िक्र आ लेगी कि तन्हाई का क्या चारा करे
दर्द आएगा दबे पाँव लिए सुर्ख़ चराग़
वो जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे

शोला ए दर्द जो पहलू में लपक उट्ठेगा
दिल की दीवार पे हर नक़्श दमक उट्ठेगा
हल्क़ा ए ज़ुल्फ़ कहीं गोशा ए रुख़्सार कहीं
हिज्र का दश्त कहीं गुलशन ए दीदार कहीं
लुत्फ़ की बात कहीं प्यार का इक़रार कहीं

दिल से फिर होगी मेरी बात कि ऐ दिल ऐ दिल
ये जो महबूब बना है तेरी तन्हाई का
ये तो मेहमाँ है घड़ी भर का चला जाएगा
उस से कब तेरी मुसीबत का मदावा होगा
मुश्तइल हो के अभी उट्ठेंगे वहशी साए
ये चला जाएगा रह जाएँगे बाक़ी साए
रात भर जिन से तेरा ख़ून ख़राबा होगा

जंग ठहरी है कोई खेल नहीं है ऐ दिल
दुश्मन ए जाँ हैं सभी सारे के सारे क़ातिल
ये कड़ी रात भी ये साए भी तन्हाई भी
दर्द और जंग में कुछ मेल नहीं है ऐ दिल
लाओ सुलगाओ कोई जोश ए ग़ज़ब का अँगार
तैश की आतिश ए जर्रार कहाँ है लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है लाओ

जिस में गर्मी भी है हरकत भी तवानाई भी
हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
मुंतज़िर होगा अंधेरे की फ़सीलों के उधर
उन को शोलों के रजज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर हम तक वो न पहुँचे भी सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुबह बता तो देंगे